Friday, October 22, 2010

बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ,
याद आती है चौंका बासान, चिमटा फुकनी जैसी माँ,
चिड़ियों की चहकार में गूंजे राधेमोहन अली अली,
मुर्गे की आवाज़ से खुलते घर की कुंडे जैसी माँ,
बान के खुर्री खाटके ऊपर हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी भरी दोपहरी जैसी माँ,
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन, थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ,
बाँट के अपना चेहरा, माथा, ऑंखें, जाने कहाँ गई
फटे पुराने इक एल्बम में चंचल लड़की जैसी माँ...

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